जूठन लेखक के बारे में | जूठन पाठ का सारांश | जूठन Subjective Question
लेखक के बारे में
हिंदी साहित्य में दलित चेतना का विकास अस्सी (1980) के बाद से दिखाई पड़ता है। मूलतः मराठी दलित आत्मकथाओं ने दलित विमर्श को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम दलित साहित्य चिंतकों में अग्रणी है। उनकी रचनाओं में सिर्फ आक्रोश या विखंडनवादी दृष्टि ही नहीं है, बल्कि समानता, सामाजिक सुरक्षा और न्याय के मानवीय मूल्यों से संपृक्त एक पूर्णतर सामाजिक और जनवादी सांस्कृतिक चेतना मौजूद है।
पाठ का सारांश
प्रस्तुत रचना उनकी आत्मकथा का संपादित अंश भर है, लेकिन अपनी गहनता में दलित समाज के सवालों को बड़ी साफगोई से सामने रख जाती है। वह तथाकथित सभ्य और सवर्ण समाज के सामने कई असुविधाजनक सवाल पैदा कर जाती है। लेखक बचपन में अपने गंवई परिवेश में सवर्णों द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, शारीरिक तथा भावनात्मक उत्पीड़न की दास्तां बेहद मार्मिक शैली में करता है। लेखक दलितों की इस मानसिक गुलामी की ऐतिहासिकता पर अपनी राय जाहिर करता है। वह बताता चलता है कि दरअसल वर्णवादी व्यवस्था के तहत सदियों से दलितों के अंदर यह भावना भर दी गई थी कि दरिद्रता और गुलामी उनका भाग्य है। वे शोषक व्यवस्था के घातों-प्रतिघातों को सदियों से सहन करते हुए संभवतः मानसिक रूप से इस बात के लिए अभ्यस्त हो चुके थे कि उन्हें सवर्णों के जूठन पर ही पलना है। अतः उनकी मानसिक निर्मिति की इस ऐतिहासिक बुनावट के चलते ही उन्हें शोषण के उक्त रूप से कोई शिकायत नहीं थी। अपने बचपन का चित्र खींचते हुए लेखक बताता है कि विद्यालय में सवर्ण हेडमास्टर लेखक की जाति पूछ कर अपमानित करते थे। तीन दिनों तक लगातार उससे विद्यालय के कमरों तथा मैदान में शीशम के पेड़ से उसी से तुड़वाकर बनाये गये झाडू से सफाई करवाते रहे। लेखक एक और मार्मिक संस्मरण का जिक्र करता है कि गाँव में सवर्णों के यहाँ काम करने वाले गरीब दलितों से पशुवत काम लिया जाता था और अपमान और उपेक्षा का व्यवहार किया जाता था। लेखक बताता है कि मरे पशु को यथाशीघ्र हटाने के लिए सवर्ण अपने दलित नौकरों पर जबरन दबाव डालते थे। जरा सी देर होने पर गालियाँ बकते थे। मृत पशुओं को हटाना बेहद श्रमसाध्य कार्य होता था। उनके हाथ-पैर बाँधकर बाँस की मोटी-मोटी बाहियों के सहारे चार से छह लोग उठा पाते थे। इसके लिए मालिक कोई भुगतान नहीं करता था। लेखक ने इसीलिए कहा कि ये शोषक वर्ग श्रम की कीमत नगण्य मानते थे और इस तरह उन्हें गरीब ही बनाये रखते थे। यह संपादित आत्मकथांश अपनी मर्मस्पर्शिता और संवेदना के गाढ़ेपन के चलते पाठक को आत्म-मूल्यांकन के लिए बाध्य कर देता है।
Q.1. विद्यालय में लेखक के साथ कैसी घटनाएं घटती है?
उत्तर – विद्यालय में हेडमास्टर लेखक की जाति पूछ कर अपमानित करते हैं। तीन दिनों तक लगातार उससे विद्यालय के कमरों तथा मैदान में शीशम के पेड़ से उसी से तुड़वाकर बनाये बनाए गए झाड़ू से सफाई करवाते हैं।
Q.2. पिताजी ने स्कूल में क्या देखा? उन्होंने आगे क्या किया ? पूरा विवरण अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – पिताजी ने स्कूल में देखा कि उनके पुत्र यानी कथाकार द्वारा वहां झाड़ू लगवाया जा रहा है। उन्होंने हेड मास्टर के इस अत्याचार का विवरण जानकर पुत्र के हाथ से झाड़ू लेकर फेंक दी। विरोध के चलते उसका पूरा शरीर दुख रहा था उन्होंने हेडमास्टर को कड़े शब्दों में उनके इस अन्याय के लिए फटकारा । हेडमास्टर द्वारा अब शब्दों के माध्यम से धमकाया जाने के बावजूद उन्होंने साहस और हौसले से हेडमास्टर का सामना किया ।
Q.3. बचपन में लेखक के साथ जो कुछ हुआ, आप कल्पना करेगी आपके साथ भी हुआ हो – ऐसी स्थिति में आप अपने अनुभव और प्रतिक्रिया को अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर – निश्चित रूप से इस तरह का अनुभव किसी भी बच्चे के लिए भयावह ही होता। बचपन बेहद मासूम और सपनों से भरा हुआ है। बालक चाहे वह किसी जाति का हो, अपने विद्यालय के सहपाठियों के साथ मित्रवत भावना रखता है , साथ ही एक तरफ की स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा भी रहती है। यदि अन्य के सामने उसे जाति या अन्य किसी मुद्दे को लेकर अर्जित किया जाता है तो उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। बालक का पवित्र मन हताशा पीड़ा और प्रतिक्रिया से भर जाता है। वह प्रतिक्रियास्वरुप विध्वंसक रास्ता भी अपना सकता है। प्रस्तुत पाठ में लेखक के साथ हुई घटनाओं के साथ अपना भावनात्मक तादात्म्य महसूस करते हुए मैं यह कह सकता हूं कि मेरे मन में भी वैसे ही प्रतिक्रिया उसकी जैसी लेखक के मन में उठी।
Q.4. किन बातों को सोच कर लेखक के भीतर कांटे जैसी उगने लगते हैं?
उत्तर – लेखक चूकिं छोटी जाति का था, अतः उसके गांव गांव में सवर्ण त्यागियो के यहां बारात आने पर झूठे बचे पत्तलो के भोजन को उसके परिवार के लोग ले आते थे। इसे वे विभिन्न प्रकार से बचा कर कई दिनों तक खाते रहते थे। सूखी पूरी को पानी में उबालकर नमक-मिर्च या गुड़ के साथ उसकी जाति के लोग चाव से खाते थे। अपने इस तरह के नारकीय जीवन के प्रति उनके मन में कोई क्षोभ नहीं था। लेखक इन्हीं बातों को याद कर एक कड़वे अनुभव से भर जाता है, जिसे वह कांटे उगने के बिंब में संकेतित करता है।
5.Q ‘दिन रात भर कब कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं। ‘ऐसा क्यों? सोचिए और उत्तर दीजिए।
उत्तर – दरअसल वर्ण वादी व्यवस्था के तहत सदियों से दलितों के अंदर या भावना भर दी गई थी कि दारिद्र्य और गुलामी उनका भाग्य ही है वे शोषणवादी व्यवस्था व्यवस्था की घाटों प्रति घाटों को सदियों से शहर करते हुए संभवत मानसिक रूप से इस बात के लिए अभ्यस्त हो चुके थे कि उनके सवर्णों के जूठन पर ही पलना है। अतः उनकी मानसिक निर्मिती कि इस ऐतिहासिक बुनावट के चलते ही उन्हें शोषण के मुख्य रूप से कोई शिकायत नहीं थी।
Q.6. सुरेंद्र की बातों को सुनकर लेखक विचलित क्यों हो जाते हैं?
उत्तर – सुरेंद्र सिंह लेखक के पास किसी इंटरव्यू के सिलसिले में गांव की से शहर आता है वह लेखक की पत्नी द्वारा बनाए स्वादिष्ट खाने की तारीफ करता है तो लेखक को सासा उसके पितामह सुखदेव सिंह त्यागी के अत्याचार की याद आ जाती है जब सुखदेव सिंह त्यागी की पुत्री का विवाह होना रहता है तो लेखक की मां और पिताजी 10-12 दिन उसके घर के बाहर भीतर जी तोड़ मेहनत करते हैं बारात के खा चुकने के बाद जब झूठे पत्थर के अलावा बच्चों के लिए मैं कुछ और भोजन की मांग करती है तो सुखदेव सिंह त्यागी उसकी मां गालियां देकर, अपमानित करते हुए भगा देता है। आज उसी का पोता लेखक की पत्नी के बनाए खाने को खाता है और तारीफ करता है तो लेखक का मन इस स्वार्थ पर हक अवसर वाद को देखकर ही विचलित हो उठता है।
Q.7. घर पहुंचने पर लेखक को देखकर उनकी माँ क्यों रो पड़ती है?
उत्तर – प्रत्येक बच्चा अपनी मां के लिए प्रिय होता है। वह उसे कष्ट में नहीं देखना चाहती। गांव के एक सवर्ण ब्रह्मदेव त्यागी का बैल मरने पर उसे उठाने के लिए उसकी बस्ती में कहा जाता है। लेखक के पिता और भाई किसी रिश्तेदारी में गए हुए थे। लेखक स्कूल में था। चाचा आलसी स्वभाव के थे। पैसे की तंगी के चलते ना चाहते हुए भी माँ लेखक को स्कूल से बुलाकर चाचा के साथ बैल की खाल उतरवाने भेजती है। वहां अल्पवय बालक से चाचा खाल उतरवाते हैं। उसके सिर पर चमड़े का गंदा और भारी बोझ रख देते हैं। लेखक गंदगी और खून के धब्बे से पस्त शरीर और ग्लानिपूर्ण भाव के साथ बोझ लिए घर आता है। उसकी हीन दशा देखकर माँ रो पड़ती है।