बिहार बोर्ड क्लास 12th हिंदी वायरल प्रश्न उत्तर 2022
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वृक्षारोपण
वृक्षारोपण का मानव के लिए अर्थ है प्राकृतिक, पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक नए वृक्षों का लगाया जाना। वृक्ष काटने से वायुमंडल की शुद्धता कम होने लगती है। वृक्ष काटने से वायुमंडल में ऑक्सीजन एवं ओजोन की मात्रा कम होने लगती है। वृक्ष काटने से वर्षा कम होने लगती है। वृक्ष काटने से मरुभूमि का प्रसार होने लगता है। मनुष्य के जीवन पर संकट खड़ा हो जाता है। अतः वृक्षारोपण से हम प्राकृतिक संतुलन कायम रख सकते हैं। वृक्षारोपण से हम प्रदूषण रोक सकते हैं।
वृक्ष काटने से हानि-ही-हानि होती है। दुष्ट मानव समाज है कि पेड़ काटकर, व्यापारिक लाभ कमाकर ही संतुष्ट हो पाता है। जंगली जातियाँ बड़ी संख्या में पेड़ काटने के पीछे पड़ी है। ये जंगली जातियाँ करोड़ों टन लकड़ियाँ जलावन के लिए काटती हैं और जंगल को अपना खेत कहती हैं। एक दिन इन जंगली मनुष्यों की प्राण रक्षा के चक्कर में राष्ट्र की सभ्य जातियाँ पिस जाएँगी। वायुमंडल प्रदूषित हो जाएगा। वृष्टि कम होगी। मरुभूमि का प्रसार होगा। मानव जाति एवं पशु जाति के जीवन पर संकट के बादल मंडराने लगेंगे।
उपसंहारतः वृक्षों को हमें सम्मान करना चाहिए। हमें अधिकाधिक वृक्षारोपण करना चाहिए। जो व्यक्ति वृक्ष काटता है और नदियों को दूषित करता है, वह आत्मघात करता है।
5(5) उषा शीर्षक कविता में आराम से लेकर अंत तक की टीम भी योजना में गति का चित्रण कैसे हो सका स्पष्ट कीजिए
उषाकालीन आकाश की सुषमा देखते ही बनती है। प्रातः का नभ बहुत नीले शंख जैसा दिव्य और प्रांजल था। भोर का नभ राख से लीपा हुआ गीले चौके (रसोई) के समान पवित्र था। भोर का नभ वैसा था, जैसे बहुत काली सिल (सिलौटी) जरा से लाल केसर से धुली हुई हो। लालिमा छा गई थी। स्लेट पर लाल खड़िया चौक कोई मल दे तो जैसा रंग उभरेगा वैसा नभ का रंग था। नीले जल में किसी आदमी की हिलती हो देह-वैसा नभ था। उषा का जादू जब टूटता है, तो सूर्योदय हो जाता है। निष्कर्षतः उषा के सार्थक प्रांजल, दिव्य और पारदर्शी
बिम्बों का निर्माण कवि शमशेर ने किया है। कविता बिम्बों और
विशेषणों से सार्थक बन गई
5(4) पुत्र वियोग का शीर्षक कविता का भावार्थ प्रकट करें।
राष्ट्रीय काव्यधारा की कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान हिंदी की विशिष्ट कवयित्री हैं। ‘पुत्र-वियोग’ शीर्षक कविता में पुत्र के निधन के बाद माँ के हृदय में उठनेवाली शोक भावनाओं को कवयित्री ने अभिव्यक्ति दी है।
सारे संसार में उल्लास की लहर दौड़ रही है। सारी दिशाएँ हँसती नजर आती हैं। लेकिन मृत्यु के बाद कवयित्री माँ का खिलौना उसका पुत्र वापस नहीं
आया।
माँ ने उसे कभी गोद से नहीं उतारा कि कहीं उसे ठंढक न लग जाए। जब कभी भी वह पुत्र माँ कहकर पुकार देता था तब वह दौड़कर उसके पास आ जाती थी।
उसे थपकी दे देकर सुलाया करती थी। उसके मधुर संगीत की
लोरियाँ गाती थी। उसके चेहरे पर तनिक भी मलिनता का शोक देखकर कवयित्री माँ रात भर सो नहीं पाती थी। पत्थरों के देवता को वह देवता मान कर पुत्र कल्याण की आकांक्षा-कामना करती थी। नारियल, दूध और बताशे भगवानको अर्पित करती थी। कहीं सिर झुकाकर देवता
को प्रणाम करती थी। बेटे की मृत्यु के बाद उसके प्राण कोई लौटा नहीं पाया। कवयित्री माँ हारकर बैठ गयी। उसका शिशु बालक इस धरती
से उठ गया।
कवयित्री माँ को पल भर की शांति नहीं मिल रही है। उसके प्राण विकल हैं, परेशान हैं। माँ का धन उसका बेटा आज खो गया है। उसे वह अब कभी पा नहीं सकेगी।
माँ का मन पुत्र के निधन पर हमेशा रोता रहता है।
अब यदि एक बार वह पुत्र जीवित हो जाता तो उसे मन से
लगाकर प्यार करती। उसके सिर को सहला-सहला कर उसे
समझाती ।
क्या समझाती? उसे समझाती कि ऐ मेरे प्यारे बेटे! तुम कभी माँ को छोड़कर न जाना। संसार में बेटा को खोकर माँ का जीवन जीना आसान काम नहीं है।
पारिवारिक जीवन में भाई बहन को भूल जा सकता है। पिता पुत्र को भूल जा सकता है, परंतु रात-दिन की साथिन माँ अपने बेटे को कभी भूल नहीं पाती है। वह अपने मन को नहीं समझा पाती है।
पाठक के हृदय में करुणा का संचार करने में ‘पुत्र-वियोग’ शीर्षक कविता सफल है। यह एक श्रेष्ठ शोकगीति है। सरल-सहज शब्दों में इसे श्रेष्ठ शोकगीति कहा जा सकता है।
5(4) पुत्र वियोग का शीर्षक कविता का भावार्थ प्रकट करें।
प्रश्न* जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती। क्या ?
उत्तर: भय हमारे चिंतन की प्रक्रिया को आक्रांत कर देता है। हम अपने जीवन में परंपराओं और रूढ़ियों, पूर्व-प्रदत्त सिद्धांतों को ही पर्याप्त और अंतिम सत्य मानकर अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता का नाश कर देते हैं। सर्जनात्मकता और मौलिकता की अनुपस्थिति ही वस्तुतः मेधा की अनुपस्थिति है। अतः यह कहना नितांत उचित है कि जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती।
ग्रैंग्रीन पैर में किसी नुकीली चीज के चुभ जाने से फैलने वाले जहर से उपजा हुआ रोग है। प्रायः इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति के पैर काट देने पड़ते हैं ।
तुलसी के हृदय में किसका डर है?
उत्तर: तुलसी के हृदय में इस बात का डर है कि इस भयावह और दारुण कलिकाल में जबकि दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का मनोबल बढ़ता ही जा रहा है, कहीं लोप ही न हो जाय। साधु और सुहृद समाज का
प्रश्न * लेखक की अब तिरिछ का सपना नहीं आता, क्यों ? उत्तर: लेखक के स्वप्न का संबंध तिरिछ के प्रति एक जन्मजात भय से है। वह आत्मभ्रम
से परिपूर्ण यथार्थ (हेतुशिनेटरी रियलिज्म) की मनोदशा में जीता है। शहर गये पिता की मौत की खबरें उसे एक काल्पनिक यथार्थ की तरफ ले जाती हैं जहाँ उसे लगता है कि जिस तरह वह अपने सपने में तिरिछ से बचने के लिए हर संभव प्रयास करता है, भय की चरम दशा और मौत को देखकर जिस तरह वह छटपटाकर चीख पड़ता है, उसी तरह की मनोदशा से शहर गये पिता गुजरे होंगे। वह तिरिछ से जुड़े मिथ को मिटाने के लिए उसे जंगल में जला आता है। पिताजी फिर भी मर जाते हैं। लेखक यह महसूस करता है कि तिरिछ से जुड़े अंधविश्वास की अपेक्षा शहर में व्याप्त अविश्वास ज्यादा खतरनाक और जानलेवा है। इस तरह पिता की मौत के यथार्थ से परिचित हो जाने तथा तिरिछ के भी स्वयं द्वारा मार दिये जाने के बाद, उक्त मनोदशा से मनोवैज्ञानिक रूप से बाहर आ चुका है, अतः उसे अब तिरिछ का सपना नहीं आता ।
प्रश्न *आपुन खात, नद मुख नावत सो छवि कहन न बनियाँ ।
उत्तर: कृष्ण जब भोजन करते समय अपने नन्हें हाथों से नंद के मुख में निवाला डालते हैं
तो कवि को यह विलक्षण दृश्य वर्णन की सीमा से परे जान पड़ता है। अर्थात् बालक कृष्ण क अंदर बालकपन के साथ नंद के प्रति जो एक स्वाभाविक प्रेम है, वह इस प्रक्रिया में एक साथ दिखाई पड़ता है। पिता और पुत्र के असीम, अगाध और गहन प्रेम के इस अनुपम दृश्य की शोभा वाकई शब्दों की सीमा में अटाई नहीं जा सकती।